याद हैं वे दिन तुझे हम कैसे आवारों में थे
ख़ार थे हर आबलों में आबले ख़ारों में थे
ऐ गुलाबी मस्त फिर मुँह लग के उस के इस क़दर
लाल-ए-लब के एक दिन हम भी परस्तारों में थे
लब तलक भी आ नहीं सकते हैं मारे ज़ोफ़ के
आह फ़ौज-ए-ग़म के जो जाने हवलदारों में थे
सामने कल ख़ुश-निगाहों के जो आया मर गया
देखा टुक क्या ही जवाहर उन की तरवारों में थे
मेरे उस के दरमियाँ हर्फ़ आया जब इंसाफ़ का
फिर गए इक मर्तबा जितने तरफ़-दारों में थे
नाला-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ दर्द-ओ-अलम सोज़-ओ-गुदाज़
आह कैसे कैसे 'जोशिश' अपने ग़म-ख़्वारों में थे

ग़ज़ल
याद हैं वे दिन तुझे हम कैसे आवारों में थे
जोशिश अज़ीमाबादी