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याद-ए-ख़ुदा से आया न ईमाँ किसी तरह | शाही शायरी
yaad-e-KHuda se aaya na iman kisi tarah

ग़ज़ल

याद-ए-ख़ुदा से आया न ईमाँ किसी तरह

यासीन अली ख़ाँ मरकज़

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याद-ए-ख़ुदा से आया न ईमाँ किसी तरह
काफ़िर बने न हम न मुसलमाँ किसी तरह

करते हो वा'दा आने का है आँख मुंतज़र
कब तक गुज़ारे दिन ये है मेहमाँ किसी तरह

आज़ाद इश्क़-ए-यार ने हम को बना दिया
माल-ओ-मता' का हूँ न मैं ख़्वाहाँ किसी तरह

पीते रहो शराब जहाँ तक कि हो सके
शाग़िल न छूटे साक़ी का दामाँ किसी तरह

आ जावें गर नसीब से आलम है नज़्अ' का
निकले हमारे दिल के भी अरमाँ किसी तरह

मर जाऊँ उन के तीर-ए-निगह से नजात हो
गर्दन पे मेरे उन का हो एहसाँ किसी तरह

ज़िंदाँ हैं फँस गया दिल-ए-मुज़्तर निगाह के
बैठे हैं पासबाँ बने मिज़्गाँ किसी तरह

बअ'द-ए-फ़ना भी क़ब्र को मिस्मार कर दिया
इज़हार-ए-रंज का न हो सामाँ किसी तरह

अदवार में अगरचे है 'मरकज़' घिरा हुआ
छोड़े न तुझ को रहमत सुब्हाँ किसी तरह