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याद आता है समाँ मुझ को ख़ुद-आराई का | शाही शायरी
yaad aata hai saman mujhko KHud-arai ka

ग़ज़ल

याद आता है समाँ मुझ को ख़ुद-आराई का

बिस्मिल इलाहाबादी

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याद आता है समाँ मुझ को ख़ुद-आराई का
चाँदनी रात में आलम तिरी अंगड़ाई का

आइना आइना-रूयों को ये देता है सबक़
कुछ समझ बूझ के दावा करो यकताई का

और भी जोश बढ़ा हो गईं मौजें बे-ताब
अक्स दरिया में पड़ा जब तिरी अंगड़ाई का

मेरे दिल में मिरी आँखों में हैं तेरी शक्लें
ज़ेब देता नहीं दावा तुझे यकताई का

दिल हुआ ज़ेर-ओ-ज़बर आह भी हम कर न सके
रह गए देख के नक़्शा तिरी अंगड़ाई का