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याद आता है रोज़ ओ शब कोई | शाही शायरी
yaad aata hai roz o shab koi

ग़ज़ल

याद आता है रोज़ ओ शब कोई

नासिर काज़मी

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याद आता है रोज़ ओ शब कोई
हम से रूठा है बे-सबब कोई

लब-ए-जू छाँव में दरख़्तों की
वो मुलाक़ात थी अजब कोई

जब तुझे पहली बार देखा था
वो भी था मौसम-ए-तरब कोई

कुछ ख़बर ले कि तेरी महफ़िल से
दूर बैठा है जाँ-ब-लब कोई

न ग़म-ए-ज़िंदगी न दर्द-ए-फ़िराक़
दिल में यूँही सी है तलब कोई

याद आती हैं दूर की बातें
प्यार से देखता है जब कोई

चोट खाई है बार-हा लेकिन
आज तो दर्द है अजब कोई

जिन को मिटना था मिट चुके 'नासिर'
उन को रुस्वा करे न अब कोई