या इलाही मुझ को ये क्या हो गया
दोस्ती का तेरी सौदा हो गया
दोस्ती क्या हम-सरी का ध्यान है
क़ैद से आज़ाद इतना हो गया
कैसी आज़ादी असीरी चीज़ क्या
जब फ़ना रंग-ए-तमन्ना हो गया
जब तमन्ना और डर जाता रहा
तो हर इक शय से मुबर्रा हो गया
यूँ मुबर्रा हो गई जब कोई ज़ात
बंद फिर नग़्मा सिफ़त का हो गया
जब हुआ औसाफ़ से कोई बरी
ऐब क्यूँकर उस में पैदा हो गया
ख़ुद-परस्ती इस को या जो कुछ कहो
अब तो ये आलम हमारा हो गया
बे-ख़ुदी ने महव-ए-हैरत कर दिया
आप में अपना तमाशा हो गया
जिस को देखा आप ही आया नज़र
रंग अब 'कैफ़ी' ये अपना हो गया
ग़ज़ल
या इलाही मुझ को ये क्या हो गया
दत्तात्रिया कैफ़ी