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वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए | शाही शायरी
wusat-e-bahr-e-ishq kya kahiye

ग़ज़ल

वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए

सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी

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वुसअ'त-ए-बहर-ए-इश्क़ क्या कहिए
इब्तिदा हो तो इंतिहा कहिए

तेरे जौर-ओ-जफ़ा को क्या कहिए
नाज़ कहिए उन्हें अदा कहिए

उस सितमगर को ओर क्या कहिए
सारे झूटों का पेशवा कहिए

पूछना चाहिए तबीबों से
दर्द-ए-दिल की है ये दवा कहिए

हम भी मुँह में ज़बान रखते हैं
कुछ समझ कर बुरा भला कहिए

ग़ैरों के सामने बुला के मुझे
कहते हैं दिल का मुद्दआ' कहिए

न कोई यार है न है ग़म-ख़्वार
किस से अब दिल का माजरा कहिए

पीते हैं जो शराब मस्जिद में
ऐसे लोगों को पारसा कहिए

शर्म क्या है मुझे जो कहना हो
सामने सब के बरमला कहिए

वो जफ़ा-गर फ़लक सितमगर है
किसे अच्छा किसे बुरा कहिए

ग़ैर साथ आप के मज़े लूटें
हम उठाएँ जफ़ाएँ क्या कहिए

भूल कर ले गया सू-ए-मंज़िल
ऐसे रहज़न को रहनुमा कहिए

चार अगर यार हैं तो दस दुश्मन
राज़ दिल का न जा-ब-जा कहिए

जान से गर गया कोई आशिक़
इश्क़ की इस को इब्तिदा कहिए

क्या यही शर्त है मोहब्बत की
बे-वफ़ाओं को बा-वफ़ा कहिए

शैख़ पीते हैं जो मय-ए-उल्फ़त
उस को किस तरह नारवा कहिए

दिल का सीने का और जिगर का हाल
है ये वाजिब जुदा जुदा कहिए

हाल सुनते नहीं मिरा न सुनो
अपने दिल का तो माजरा कहिए

'मशरिक़ी' छोड़िए बुतों का ज़िक्र
सुब्ह उठ कर ख़ुदा ख़ुदा कहिए