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वुरूद-ए-जिस्म था जाँ का अज़ाब होने लगा | शाही शायरी
wurud-e-jism tha jaan ka azab hone laga

ग़ज़ल

वुरूद-ए-जिस्म था जाँ का अज़ाब होने लगा

ख़ालिद कर्रार

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वुरूद-ए-जिस्म था जाँ का अज़ाब होने लगा
लहू में उतरा मगर ज़हर आब होने लगा

कोई तो आए सुनाए नवेद-ए-ताज़ा मुझे
उठो कि हश्र से पहले हिसाब होने लगा

उसे शुबह है झुलस जाएगा वो साथ मिरे
मुझे ये ख़ौफ़ कि मैं आफ़्ताब होने लगा

फिर उस के सामने चुप की कड़ी लबों पे लगी
मिरा ये मंसब-ए-हर्फ़ आब आब होने लगा

मैं अपने ख़ोल में ख़ुश भी था मुतमइन भी था
मैं अपनी ख़ाक से निकला ख़राब होने लगा

ज़रूर मुझ से ज़ियादा है उस में कुछ 'ख़ालिद'
मिरा हरीफ़ अगर फ़तह-याब होने लगा