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वुफ़ूर-ए-शौक़ में आह-ओ-फ़ुग़ाँ को भूल गए | शाही शायरी
wufur-e-shauq mein aah-o-fughan ko bhul gae

ग़ज़ल

वुफ़ूर-ए-शौक़ में आह-ओ-फ़ुग़ाँ को भूल गए

बर्क़ हैदराबादी

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वुफ़ूर-ए-शौक़ में आह-ओ-फ़ुग़ाँ को भूल गए
तुम आ गए तो ग़म-ए-दो-जहाँ को भूल गए

असीर-ए-ग़म हैं क़फ़स में गुज़ार लेते हैं
चमन को भूल गए आशियाँ को भूल गए

हयात-ए-चंद-नफ़स में कशाकश-ए-पैहम
रही है उतनी कि दर्द-ए-निहाँ को भूल गए

दराज़-दस्ती-ए-अग़्यार का गिला क्या है
अदू को भूल गए मेहरबाँ को भूल गए

रह-ए-हयात की मंज़िल अजीब पेचीदा
कहाँ की राह ख़ुद हम कारवाँ को भूल गए

सुनाएँ इश्क़ की रूदाद क्या तुम्हें ऐ 'बर्क़'
है मुख़्तसर सी मगर दास्ताँ को भूल गए