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वो ज़ुल्फ़ है तो हर्फ़-ए-ततार-ओ-ख़ुतन ग़लत | शाही शायरी
wo zulf hai to harf-e-tatar-o-KHutan ghalat

ग़ज़ल

वो ज़ुल्फ़ है तो हर्फ़-ए-ततार-ओ-ख़ुतन ग़लत

सिराज औरंगाबादी

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वो ज़ुल्फ़ है तो हर्फ़-ए-ततार-ओ-ख़ुतन ग़लत
इस लब के होते नाम-ए-अक़ीक़-ए-यमन ग़लत

आया है जब सें बाग़ तरफ़ वो किताब-रू
तब सें हुआ है सफ़्हा-ए-बर्ग-ए-समन ग़लत

बैठे सुख़न में वादा-ख़िलाफ़ी का बोल क्यूँ
हरगिज़ नबोल' बोल ऐ शीरीं-दहन ग़लत

डरता हूँ उस भवों के इशारत सें दम-ब-दम
होता नहीं है सैफ़-ज़ुबाँ का सुख़न ग़लत

रौशन है ऐ 'सिराज' कि फ़ानी है सब जहाँ
मुतरिब ग़लत है जाम ग़लत अंजुमन ग़लत