वो उन का हिजाब और नज़ाकत के नज़ारे
आए वो शब-ए-वादा तसव्वुर के सहारे
वो काली घटा और वो बढ़ते हुए धारे
ज़ाहिद भी अगर देखे तो साक़ी को पुकारे
वो जल्वा-गाह-ए-नाज़ वो मख़मूर निगाहें
अब क्या कहूँ ये लम्हे कहाँ मैं ने गुज़ारे
ख़ुद हुस्न का मेआर निरा ज़ौक़-ए-नज़र हैं
उतने ही हसीं आप हैं जितने मुझे प्यारे
बे-वज्ह नहीं हुस्न की तनवीर में ताबिश
वो देते हैं ख़ाकिस्तर-ए-उल्फ़त के शरारे
तुम चाहो तो दो लफ़्ज़ों में तय होते हैं झगड़े
कुछ शिकवे हैं बेजा मिरे कुछ उज़्र तुम्हारे
फिर जाम-ब-कफ़ हो गई हर चीज़ 'असर' आज
याद आ गए फिर मध्-भरी आँखों के इशारे
ग़ज़ल
वो उन का हिजाब और नज़ाकत के नज़ारे
असर रामपुरी