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वो तो मिल कर भी नहीं मिलती है | शाही शायरी
wo to mil kar bhi nahin milti hai

ग़ज़ल

वो तो मिल कर भी नहीं मिलती है

त्रिपुरारि

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वो तो मिल कर भी नहीं मिलती है
जाने किस धुन में रहा करती है

चूम लेती है मिरा माथा जब
एक ख़ुशबू सी बरस पड़ती है

सोच लेता हूँ उसे दम भर को
और ये रूह महक उठती है

मैं जिसे कह न सकूँगा हरगिज़
आज वो बात मुझे कहनी है

लोग कहते हैं मोहब्बत जिस को
सर-फिरी बिगड़ी हुई लड़की है

अपनी दुनिया के मसाइल में वो
अपनी ज़ुल्फ़ों की तरह उलझी है

मैं नदी नींद की और वो मुझ में
ख़्वाब मछली की तरह रहती है