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वो तो गया अब अपनी अना को समेट ले | शाही शायरी
wo to gaya ab apni ana ko sameT le

ग़ज़ल

वो तो गया अब अपनी अना को समेट ले

ख़ालिद शरीफ़

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वो तो गया अब अपनी अना को समेट ले
ऐ ग़म-गुसार दस्त-ए-दुआ को समेट ले

बालों में अपने डाल ले अब ख़ाक-ए-कू-ए-यार
बाँहों में उस गली की हवा को समेट ले

मिट्टी की इक लकीर भी कह देगी दास्ताँ
चलने का शौक़ है तो रिदा को समेट ले

इन आबलों की रौशनी भटकेगी शहर में
ऐ कूचा-गर्द गर्दिश-ए-पा को समेट ले

लफ़्ज़ों को तर्क कर दे कि इन को नहीं सबात
आँखों में आज अपनी वफ़ा को समेट ले

बस एक चुप ही तेरे लबों पर सजी रहे
बस अपने दिल में सैल-ए-बला को समेट ले

'ख़ालिद' कभी तो तज़किरा-ए-जाँ सुना हमें
अपनी सदा में ख़ौफ़-ए-सदा को समेट ले