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वो तेरी इनायत की सज़ा याद है अब तक | शाही शायरी
wo teri inayat ki saza yaad hai ab tak

ग़ज़ल

वो तेरी इनायत की सज़ा याद है अब तक

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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वो तेरी इनायत की सज़ा याद है अब तक
आया था ख़ुदा याद ख़ुदा याद है अब तक

छलकी हुई आँखों में मय-ए-सुर्ख़ के डोरे
ज़ुल्फ़ों की वो लहराई घटा याद है अब तक

वो जिस्म की ख़ुश्बू की पुर-असरार सी लपटें
वो मो'जिज़ा-ए-मौज-ए-सबा याद है अब तक

वो चाँदी के पानी से धुले आरिज़-ओ-रुख़ पर
कैफ़िय्यत-ए-सद-रंग-ए-हिना याद है अब तक

थी जिस को ब-हर-गाम सहारे की ज़रूरत
मुझ को वो तिरी लग़्ज़िश-ए-पा याद है अब तक

वो बातों ही बातों में बिगड़ जाने के अंदाज़
वो रूठ के मनने की अदा याद है अब तक

क़ुर्बत की तमन्ना को समेटे हुए दूरी
वो अपनी ख़ुदी तेरी अना याद है अब तक

जो सर ब-हमा-ए-ज़ो'म झुका था तिरे आगे
जो दिल कि था राज़ी-ब-रज़ा याद है अब तक

हल्के से इशारे पे वो जाँ देने की ख़्वाहिश
वो दौर-ए-जुनूँ अहद-ए-वफ़ा याद है अब तक

क्या तुझ को वफ़ाओं की अदा याद रहेगी
मुझ को तो तिरा तर्ज़-ए-जफ़ा याद है अब तक

अब सख़्ती-ए-दौराँ की कड़ी धूप है और हम
लेकिन तिरे कूचे की हवा याद है अब तक