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वो तबस्सुम था जहाँ शायद वहीं पर रह गया | शाही शायरी
wo tabassum tha jahan shayad wahin par rah gaya

ग़ज़ल

वो तबस्सुम था जहाँ शायद वहीं पर रह गया

इम्तियाज़ ख़ान

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वो तबस्सुम था जहाँ शायद वहीं पर रह गया
मेरी आँखों का हर इक मंज़र कहीं पर रह गया

मैं तो हो कर आ गया आज़ाद उस की क़ैद से
दिल मगर इस जल्द-बाज़ी में वहीं पर रह गया

कौन सज्दों में निहाँ है जो मुझे दिखता नहीं
किस के बोसे का निशाँ मेरी जबीं पर रह गया

हम को अक्सर ये ख़याल आता है उस को देख कर
ये सितारा कैसे ग़लती से ज़मीं पर रह गया

हम लबों को खोल ही कब पाए उस के सामने
इक नया इल्ज़ाम फिर देखो हमीं पर रह गया