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वो सुन कर हूर की तारीफ़ पर्दे से निकल आए | शाही शायरी
wo sun kar hur ki tarif parde se nikal aae

ग़ज़ल

वो सुन कर हूर की तारीफ़ पर्दे से निकल आए

बेख़ुद देहलवी

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वो सुन कर हूर की तारीफ़ पर्दे से निकल आए
कहा फिर मुस्कुरा कर हुस्न-ए-ज़ेबा इस को कहते हैं

अजल का नाम दुश्मन दूसरे मा'नी में लेता है
तुम्हारे चाहने वाले तमन्ना इस को कहते हैं

मिरे मदफ़न पे क्यूँ रोते हो आशिक़ मर नहीं सकता
ये मर जाना नहीं है सब्र आना इस को कहते हैं

नमक भर कर मिरे ज़ख़्मों में तुम क्या मुस्कुराते हो
मिरे ज़ख़्मों को देखो मुस्कुराना इस को कहते हैं

ज़माने से अदावत का सबब थी दोस्ती जिन की
अब उन को दुश्मनी है हम से दुनिया इस को कहते हैं

दिखाते हम न आईना तो ये क्यूँ कर नज़र आता
बशर हूरों से अच्छा तुम ने देखा इस को कहते हैं