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वो शे'र सुन के मिरा हो गया दिवाना क्या | शाही शायरी
wo sher sun ke mera ho gaya diwana kya

ग़ज़ल

वो शे'र सुन के मिरा हो गया दिवाना क्या

नज़ीर नज़र

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वो शे'र सुन के मिरा हो गया दिवाना क्या
मैं सच कहूँगा तो मानेगा ये ज़माना क्या

कभी तो आना है दुनिया के सामने उस को
अब उस को ढूँढने दैर-ओ-हरम में जाना क्या

सुना है काम चलाते हो तुम बहानों से
उधार दोगे मुझे भी कोई बहाना क्या

तुम्हारी यादों की गर्मी है सर्द रातों में
लिहाफ़ ऐसे में अब ओढ़ना बिछाना क्या

जलेगा जितना भी दुनिया को रौशनी देगा
चराग़-ए-इल्म-ओ-हुनर है इसे बुझाना क्या

तबाह करने पे आए तो फिर नहीं सुनती
वो नर्म-रौ है नदी का मगर ठिकाना क्या