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वह शक्ल वह शनाख़्त वह पैकर की आरज़ू | शाही शायरी
wo shakl wo shanaKHt wo paikar ki aarzu

ग़ज़ल

वह शक्ल वह शनाख़्त वह पैकर की आरज़ू

अखिलेश तिवारी

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वह शक्ल वह शनाख़्त वह पैकर की आरज़ू
पत्थर की हो के रह गई पत्थर की आरज़ू

छत हो फ़लक तो ख़ाक उड़ाने को पाँव में
सहरा में खींचती है हमें घर की आरज़ू

ज़ख़्मी किए हैं पाँव कभी लाई राह पर
कब कौन जान पाया है ठोकर की आरज़ू

अपनी गिरफ़्त में लिए उड़ता फिरे कहीं
पर्वाज़ को है कब से उसी पर की आरज़ू

रहती है मुझ में कब से कुँवारी है आज तक
इक आरज़ू के अपने स्वयंवर की आरज़ू

'अखिलेश' कब बुझी है हवस की शदीद प्यास
दरिया तमाम पी ले समुंदर की आरज़ू