वो सई क़फ़स में कर कि टूटे
इस में रहे बाल-ओ-पर कि टूटे
पा-ए-तलब उस की जुस्तुजू में
याँ तक फिरे दर-ब-दर कि टूटे
रोने का तार बंध रहा है
ऐसा न हो चश्म-ए-तर कि टूटे
है बे-मय-ए-इश्क़ शीशा-ए-दिल
मार उस को तू संग पर कि टूटे
दुनिया से तो टूटता नहीं दिल
ऐसी कुछ फ़िक्र कर कि टूटे
हुई बस कि ख़ुशी-ए-ज़ख़्म-ए-ताज़ा
हैं टाँके तिरे जिगर कि टूटे
महशर में भी नींद ग़ाफ़िलों की
मुमकिन नहीं बे-ख़बर कि टूटे
'जोशिश' हर ख़ार-ए-दश्त पर याँ
इस तरह क़दम न धर कि टूटे
ग़ज़ल
वो सई क़फ़स में कर कि टूटे
जोशिश अज़ीमाबादी