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वो सब में हम को बार-ए-दिगर देखते रहे | शाही शायरी
wo sab mein hum ko bar-e-digar dekhte rahe

ग़ज़ल

वो सब में हम को बार-ए-दिगर देखते रहे

हाशिम रज़ा जलालपुरी

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वो सब में हम को बार-ए-दिगर देखते रहे
हम उन का इंतिख़ाब-ए-नज़र देखते रहे

दामन बचा के अश्कों से वो तो निकल गए
हम देर तक ज़मीं पर गुहर देखते रहे

हम बे-नियाज़ बैठे हुए उन की बज़्म में
औरों की बंदगी का असर देखते रहे

आई सहर तो और बढ़ा बिजलियों का ज़ोर
शब भर हम इंतिज़ार-ए-सहर देखते रहे

शोलों की ज़द में थे सभी किस को पुकारते
हर सम्त ख़िरमनों में शरर देखते रहे

क्यूँ-कर सँभालते हमें वो नाख़ुदा जो ख़ुद
साहिल की आफ़ियत से भँवर देखते रहे

मंज़िल की धुन में आबला-पा चल खड़े हुए
और शहसवार गर्द-ए-सफ़र देखते रहे