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वो सामने जब आ जाते हैं सकते का सा आलम होता है | शाही शायरी
wo samne jab aa jate hain sakte ka sa aalam hota hai

ग़ज़ल

वो सामने जब आ जाते हैं सकते का सा आलम होता है

इक़बाल सुहैल

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वो सामने जब आ जाते हैं सकते का सा आलम होता है
उस दिल की तबाही क्या कहिए अमृत भी जिसे सम होता है

देते हैं उसी को जाम-ए-तरब जो जुरआ-कश-ए-गम होता है
कब बाग़-ए-जहाँ हैं ख़ंदा-ए-गुल बे-गिर्या-ए-शबनम होता है

जब वलवला सादिक़ होता है जब अज़्म मुसम्मम होता है
तकमील का सामाँ ग़ैब से ख़ुद उस वक़्त फ़राहम होता है

अंजाम-ए-वफ़ा भी देख लिया अब किस लिए सर ख़म होता है
नाज़ुक है मिज़ाज-ए-हुस्न बहुत सज्दे से भी बरहम होता है

ये आग दहकती है जितनी उतना ही धुआँ कम देती है
एहसास-ए-सितम बढ़ जाता है तो शोर-ए-फ़ुग़ाँ कम होता है

रग रग में निज़ाम-ए-फ़ितरत की रक़्साँ है मोहब्बत की बिजली
हो लाख तज़ाद अज़दाद में भी इक राब्ता बाहम होता है

मिल-जुल के ब-रंग-ए-शीर-ओ-शकर दोनों के निखरते हैं जौहर
दरियाओं के संगम से बढ़ कर तहज़ीबों का संगम होता है

ताराज नशेमन खेल सही सय्याद मगर इतना सुन ले
जब इश्क़ की दुनिया लुटती है ख़ुद हुस्न का मातम होता है

दीवानों के जेब-ओ-दामन का उड़ता है फ़ज़ा में जो टुकड़ा
मुस्तक़बिल-ए-मिल्लत के हक़ में इक़बाल का परचम होता है

मंसूर जो होता अहल-ए-नज़र तो दावा-ए-बातिल क्यूँ करता
उस की तो ज़बाँ खुलती ही नहीं जो राज़ का महरम होता है

ता-चंद 'सुहैल' अफ़्सुर्दा-ए-ग़म क्या याद नहीं तारीख़-ए-हरम
ईमाँ के जहाँ पड़ते हैं क़दम पैदा वहीं ज़मज़म होता है