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वो रू-ब-रू हों तो ये कैफ़-ए-इज़्तिराब न हो | शाही शायरी
wo ru-ba-ru hon to ye kaif-e-iztirab na ho

ग़ज़ल

वो रू-ब-रू हों तो ये कैफ़-ए-इज़्तिराब न हो

शिव दयाल सहाब

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वो रू-ब-रू हों तो ये कैफ़-ए-इज़्तिराब न हो
ख़ुदा करे निगह-ए-शौक़ कामयाब न हो

सवाल क्या हो कि उन की ख़मोश नज़रों में
न दे सके जो वो अब तक वही जवाब न हो

ये क्या गुमाँ है कि वक़्त-ए-सहर की बेदारी
जो रात बीत चुकी है उसी का ख़्वाब न हो

ये इन्हितात-ए-जुनूँ ये ख़िरद की सुस्त-रवी
कहीं ये ख़ामुशी अज़-क़ब्ल-ए-इंक़लाब न हो

कहीं जुनूँ में ये मेरा कमाल-ए-होश-ओ-ख़िरद
तिरी निगाह-ए-तग़ाफ़ुल का पेच-ओ-ताब न हो

जुनून-ए-ग़म है मिरा पर्दा-ए-हिजाब से दूर
कि ला-जवाब तिरा हुस्न-ए-ला-जवाब न हो

सुना है वो रुख़-ए-ज़ेबा नक़ाब में है 'सहाब'
कहीं ये हस्ती-ए-मौहूम ही नक़ाब न हो