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वो रोब-ए-हुस्न था उस का सलाम भूल गया | शाही शायरी
wo roab-e-husn tha us ka salam bhul gaya

ग़ज़ल

वो रोब-ए-हुस्न था उस का सलाम भूल गया

नासिर ज़ैदी

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वो रोब-ए-हुस्न था उस का सलाम भूल गया
करा सका न तआरुफ़ में नाम भूल गया

इधर उधर की हुई ख़ूब गुफ़्तुगू उस से
बहुत ज़रूरी था सब से जो काम भूल गया

ग़म-ए-जहाँ ने किया इस क़दर ख़राब कि मैं
जो दोस्तों में गुज़ारी थी शाम भूल गया

ज़बान-ए-ग़ैर से मैं तेरा तज़्किरा सुन कर
ज़रा सी देर में सब एहतिराम भूल गया

रखा जो उस ने मोहब्बत से हाथ काँधे पर
जो दिल में दर्द था मेरे तमाम भूल गया

ये कैसी राह-ए-तमन्ना थी मेरे पेश-ए-नज़र
चला तो चल के फ़क़त चंद गाम भूल गया

मैं उस की ज़ात में गुम इस तरह हुआ 'नासिर'
कहाँ के होश ओ ख़िरद सब कलाम भूल गया