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वो रौशनी जो शफ़क़ का लिबास छोड़ गई | शाही शायरी
wo raushni jo shafaq ka libas chhoD gai

ग़ज़ल

वो रौशनी जो शफ़क़ का लिबास छोड़ गई

तौक़ीर अब्बास

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वो रौशनी जो शफ़क़ का लिबास छोड़ गई
मिरे लिए तो वो लम्हे उदास छोड़ गई

बहार दर्द भरा इक़्तिबास छोड़ गई
हर इक शजर का बदन बे-लिबास छोड़ गई

अजीब लहर में हम ने हवा का साथ दिया
अजीब मोड़ पे अब ग़म-शनास छोड़ गई

नसीम-ए-सुब्ह गुलों को गुदाज़ देती रही
मगर दिलों की फ़ज़ा को उदास छोड़ गई

फिर इस से उगला सफ़र रौशनी का था 'तौक़ीर'
मुझे जहाँ वो सितारा-शनास छोड़ गई