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वो रौशनी है कि आँखों को कुछ सुझाई न दे | शाही शायरी
wo raushni hai ki aankhon ko kuchh sujhai na de

ग़ज़ल

वो रौशनी है कि आँखों को कुछ सुझाई न दे

मज़हर इमाम

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वो रौशनी है कि आँखों को कुछ सुझाई न दे
सुकूत वो कि धमाका भी अब सुनाई न दे

पहुँच गया हूँ ज़मान ओ मकान के मलबे तक
मिरी अना मुझे इल्ज़ाम-ए-ना-रसाई न दे

अगर कहीं है तो दिल चीर कर दिखा मुझ को
तू अपनी ज़ात का इरफ़ान दे ख़ुदाई न दे

अज़ल के टूटते रिश्तों की इस कशाकश में
पुकार ऐसी अदा से मुझे सुनाई न दे

निकल चुका हूँ मैं अपनी कमान से आगे
तअल्लुक़ात-ए-गुज़िश्ता की अब दुहाई न दे