वो राहबर तो नहीं था इआदा क्या करता
बना के राह में वो कोई जादा क्या करता
नहा रहा हो उजालों के जो समुंदर में
वो ले के ज़ुल्मत-ए-शब का लबादा क्या करता
हर एक शख़्स जहाँ मस्लहत से मिलता हो
वहाँ किसी से कोई इस्तिफ़ादा क्या करता
न जिस में रंग न ख़ाका न कोई अक्स-ए-जमाल
बना के ऐसी मैं तस्वीर-ए-सादा क्या करता
महाज़-ए-जंग में वो अपने फ़र्ज़ की ख़ातिर
न देता जान तो आख़िर पियादा क्या करता
जहाँ पे होता हो इंसानियत का ख़ूँ 'आरिफ़'
मैं ऐसी दुनिया में रह कर ज़ियादा क्या करता

ग़ज़ल
वो राहबर तो नहीं था इआदा क्या करता
याक़ूब आरिफ़