वो क़लंदरों में शुमार है
ग़म-ए-ज़ीस्त से उसे प्यार है
मिरे बाग़-ए-दिल के नसीब में
फ़क़त इंतिज़ार-ए-बहार है
ग़म-ए-आशिक़ी से जो पूछिए
ये जहाँ भी उजड़ा दयार है
जिसे ताज कहता है ये जहाँ
वो हक़ीक़तन तो मज़ार है
ये अजब नहीं कि जुनून-ए-इश्क़
सर-ए-दार था सर-ए-दार है
मैं जो हक़-हलाल की रह पे हूँ
मुझे ख़्वाब में भी क़रार है
मिरी धड़कनें भी हैं बहर में
मुझे शाइ'री का ख़ुमार है
ग़ज़ल
वो क़लंदरों में शुमार है
दिनेश कुमार