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वो पेच-ओ-ख़म जो अलग मेरी रहगुज़र से था | शाही शायरी
wo pech-o-KHam jo alag meri rahguzar se tha

ग़ज़ल

वो पेच-ओ-ख़म जो अलग मेरी रहगुज़र से था

मर्ग़ूब हसन

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वो पेच-ओ-ख़म जो अलग मेरी रहगुज़र से था
मुझे ख़बर है नुमायाँ मिरे सफ़र से था

गुज़र गया था किसी राज़ की तरह वो नक़्श
धुला हुआ जो मिरी ख़ाक-ए-ख़ैर-ओ-शर से था

हवा के साथ सफ़र का न हौसला था जिसे
सभी को ख़ौफ़ उसी लम्हा-ए-शरर से था

कनार-ए-शाम उफ़ुक़ था वही मगर वीरान
ख़ला के सिलसिला-ए-लम्स के असर से था

रुका हुआ था ख़मोशी की तह में सैल कोई
ख़तर उसे भी मिरी तरह बहर-ओ-बर से था

मिरी निगाह में हाएल थे बर्ग-ओ-बार-ए-ख़िज़ाँ
घिरा हुआ मैं अजब साया-ए-शजर से था