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वो पेच-ओ-ख़म जहाँ की हर इक रहगुज़र में है | शाही शायरी
wo pech-o-KHam jahan ki har ek rahguzar mein hai

ग़ज़ल

वो पेच-ओ-ख़म जहाँ की हर इक रहगुज़र में है

हरबंस लाल अनेजा 'जमाल'

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वो पेच-ओ-ख़म जहाँ की हर इक रहगुज़र में है
ख़ुद कारवान-ए-वक़्त भी अब तक सफ़र में है

यारो कहाँ वो जल्वा-ए-शम्स-ओ-क़मर में है
जो नूर जो ज़िया मिरे दाग़-ए-जिगर में है

है वादा-ए-विसाल-ए-सनम की वो सरख़ुशी
हर शय हसीन अब मिरी फ़िक्र-ओ-नज़र में है

मंज़िल बग़ैर तय किए लेता नहीं हूँ चैन
ये दम ये हौसला ही कहाँ राहबर में है

कुछ ग़म नहीं कि हो मिरी हद्द-ए-नज़र से दूर
लेकिन तुम्हारी याद तो क़ल्ब-ओ-जिगर में है

हर बहर हर ज़मीन में कहता हूँ ख़ूब शे'र
कब ये कमाल अब किसी अहल-ए-हुनर में है

जिस से अयाँ हो दहर का एहसास-ए-बे-रुख़ी
आईना वो 'जमाल' हमारी नज़र में है