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वो पैरहन-ए-जान में जाँ हजला-ए-तन में | शाही शायरी
wo pairahan-e-jaan mein jaan hajla-e-tan mein

ग़ज़ल

वो पैरहन-ए-जान में जाँ हजला-ए-तन में

इस्माइल मेरठी

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वो पैरहन-ए-जान में जाँ हजला-ए-तन में
हूँ वहम-ए-जुदाई से अजब रंज-ओ-मेहन में

मक़्सूद ज़ियारत है अगर काबा-ए-दिल की
हो गर्म-ए-सफ़र नाहिया-ए-मुल्क-ए-वतन में

वो क़ामत-ए-दिलकश है अजब फ़ित्ना-ए-आलम
छुपता ही नहीं पैरहन-ए-नौद-कुहन में

ऐ शम्अ' बहा अश्क छुपा राज़-ए-मोहब्बत
ख़ाकिस्तर-ए-परवाना है बेताब लगन में

शोरिश मिरी बेजा है न फ़रियाद निकम्मी
रौनक़ है ज़रा नाला-ए-बुलबुल से चमन में

तासीर हो क्या ख़ाक जो बातों में घड़त हो
कुछ बात निकलती है तो बे-साख़्ता-पन में

कम-तर है दो ओ दाम से इंसाँ ब-मरातिब
हर दम जो तरक़्क़ी न करे चाल-चलन में

हूँ मैं तो वही मोतकिफ़-ए-गोशा-ए-उज़्लत
हालाँकि मिरा रेख़्ता पहुँचा है दकन में

ये सच है कि सौदा भी था उस्ताद-ए-ज़माना
मेरी तो मगर 'मीर' ही था शेर के फ़न में