वो पास क्या ज़रा सा मुस्कुरा के बैठ गया
मैं इस मज़ाक़ को दिल से लगा के बैठ गया
जब उस की बज़्म में दार-ओ-रसन की बात चली
मैं झट से उठ गया और आगे आ के बैठ गया
दरख़्त काट के जब थक गया लकड़-हारा
तो इक दरख़्त के साए में जा के बैठ गया
तुम्हारे दर से मैं कब उठना चाहता था मगर
ये मेरा दिल है कि मुझ को उठा के बैठ गया
जो मेरे वास्ते कुर्सी लगाया करता था
वो मेरी कुर्सी से कुर्सी लगा के बैठ गया
फिर उस के बा'द कई लोग उठ के जाने लगे
मैं उठ के जाने का नुस्ख़ा बता के बैठ गया
ग़ज़ल
वो पास क्या ज़रा सा मुस्कुरा के बैठ गया
ज़ुबैर अली ताबिश