वो निगह जब मुझे पुकारती थी 
दिल की हैरानियाँ उभारती थी 
अपनी नादीदा उँगलियों के साथ 
मेरे बालों को वो सँवारती थी 
रोज़ मैं उस को जीत जाता था 
और वो रोज़ ख़ुद को हारती थी 
पत्तियाँ मुस्कुराने लगती थीं 
शाख़ से फूल जब उतारती थी 
जिन दिनों मैं उसे पुकारता था 
एक दुनिया मुझे पुकारती थी 
सेहन में छाँव थी दरख़्तों की 
जो मिरी शाइरी निखारती थी 
बारगाहों में ग़ुस्ल-ए-गिर्या से 
रूह अपनी थकन उतारती थी 
इक लगन थी चुभन थी जो भी थी 
रोज़ सीने में दिन गुज़ारती थी
        ग़ज़ल
वो निगह जब मुझे पुकारती थी
हम्माद नियाज़ी

