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वो निगाहों को जब बदलते हैं | शाही शायरी
wo nigahon ko jab badalte hain

ग़ज़ल

वो निगाहों को जब बदलते हैं

इक़बाल सफ़ी पूरी

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वो निगाहों को जब बदलते हैं
दिल सँभाले नहीं सँभलते हैं

मंज़िलें दूर हैं कभी नज़दीक
हर क़दम फ़ासले बदलते हैं

कौन जाने कि इक तबस्सुम से
कितने मफ़्हूम-ए-ग़म निकलते हैं

न गुज़र इतनी कज-रवी से कि लोग
तेरे नक़्श-ए-क़दम पे चलते हैं

आग भी उन घरों को लगती है
जिन घरों में चराग़ जलते हैं

जब भी उठती है वो नज़र 'इक़बाल'
शम्अ' की तरह दिल पिघलते हैं