EN اردو
वो निगाहें जो दिल-ए-महज़ूँ में पिन्हाँ हो गईं | शाही शायरी
wo nigahen jo dil-e-mahzun mein pinhan ho gain

ग़ज़ल

वो निगाहें जो दिल-ए-महज़ूँ में पिन्हाँ हो गईं

हादी मछलीशहरी

;

वो निगाहें जो दिल-ए-महज़ूँ में पिन्हाँ हो गईं
शौक़ की बेताबियाँ बढ़ कर नुमायाँ हो गईं

हर मुसीबत थी मुझे ताज़ा पयाम-ए-आफ़ियत
मुश्किलें जितनी बढ़ीं उतनी ही आसाँ हो गईं

तीर खा खा कर तड़पना दिल की क़िस्मत ही में था
या इलाही वो निगाहें क्यूँ पशीमाँ हो गईं

इक ज़रा से मुस्कुरा देने का हासिल ये हुआ
हस्तियाँ ग़ुंचों की औराक़-ए-परेशाँ हो गईं

शौक़ फिर सर्फ़-ए-चमन-आराई-ख़ातिर है आज
फिर वही रंगीनियाँ जान-ए-गुलिस्ताँ हो गईं

शीशा-ए-दिल अक्स-बरदार-ए-तमन्ना फिर हुआ
फिर फ़रोज़ाँ शम्अ-हा-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं