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वो निगाह मिल के निगाह से ब-अदा-ए-ख़ास झिझक गई | शाही शायरी
wo nigah mil ke nigah se ba-ada-e-KHas jhijhak gai

ग़ज़ल

वो निगाह मिल के निगाह से ब-अदा-ए-ख़ास झिझक गई

वक़ार बिजनोरी

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वो निगाह मिल के निगाह से ब-अदा-ए-ख़ास झिझक गई
तो ब-रंग-ए-ख़ूँ मिरी आरज़ू मिरी चश्म-ए-तर से टपक गई

कभी अश्क बन के ढलक गई कभी रश्क बन के झलक गई
वो शराब जाम-ए-हयात से जो शबाब बन के छलक गई

मिरी आह-ए-साइक़ा-बार जब मिरे तूर-ए-दिल पे चमक गई
जो ज़मीं से ता-ब-फ़लक गई तो फ़लक से ता-ब-समक गई

मैं ज़हे-नसीब घिरा हुआ हूँ तजल्लियों के हुजूम में
ये शुआ' किस के जमाल की मिरी ज़ुल्मतों में चमक गई

उसी बे-पनाह-ए-निगाह का मुझे बार बार हदफ़ बना
कि दिल आज झूम के दिल बना रग-ए-जाँ भी मेरी फड़क गई

पस-ए-दफ़्न भी न सुकूँ मिला तह-ए-ख़ाक हसरत-ए-इश्क़ को
कभी सब्ज़ा बन के लहक उठी कभी फूल बन के महक गई

तिरी चश्म-ए-मस्त ने साक़िया भरे मय-कदे को भुला दिया
कभी याद बन के बरस गई कभी शीशा बन के खनक गई

कोई काश आ के 'वक़ार' के भी शिकस्ता साज़ को छेड़ दे
वो जुनूँ-नवाज़ हवा चली वो क़बा-ए-ग़ुंचा मसक गई