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वो निगाह-ए-चश्म-ए-तिलिस्म-गर मुझे देखते ही लजा गई | शाही शायरी
wo nigah-e-chashm-e-tilism-gar mujhe dekhte hi laja gai

ग़ज़ल

वो निगाह-ए-चश्म-ए-तिलिस्म-गर मुझे देखते ही लजा गई

नियाज़ हैदर

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वो निगाह-ए-चश्म-ए-तिलिस्म-गर मुझे देखते ही लजा गई
वो अदा जो सहर-ए-तमाम से भी सिवा करिश्मा दिखा गई

यही जाम परतव-ए-रुख़ तिरा यही तेरी ज़ुल्फ़ को आईना
मह ओ अबरू मय की हसीं फ़ज़ा इसे रोकना ये फ़ज़ा गई

वो मिसाल-ए-बर्क़ नुमूद गुम-गश्तगी तबस्सुम-ए-बे-अमाँ
शफ़क़-आफ़रीं सी वो मौज लब दिल ओ जाँ में आग लगा गई

वो सियाह-रंग शमीम-शाम-ए-विसाल की जो नवेद है
इस अलम-गज़ीदा फ़िराक़ में वही ज़ुल्फ़ याद फिर आ गई

शह-ए-दिलबराँ तुझे क्या ख़बर दिल-ए-रिंद-ए-ख़ाक-नशीं है क्या
इसी ख़ाक ने उसे दिल किया यही ख़ाक उस को मिटा गई

वो सितम-शिआर सही मगर है वही क़रार-ए-दिल-ओ-नज़र
वो रहे तो रस्म-ए-वफ़ा रहे न रहे तो रस्म-ए-वफ़ा गई