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वो नज़र मुझ से ख़फ़ा हो जैसे | शाही शायरी
wo nazar mujhse KHafa ho jaise

ग़ज़ल

वो नज़र मुझ से ख़फ़ा हो जैसे

मेहवर नूरी

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वो नज़र मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
जिस्म से रूह जुदा हो जैसे

यूँ उठा मेरे नशेमन से धुआँ
दर्द पहलू से उठा हो जैसे

ज़िंदगी अपने ही ज़ख़्मों के सबब
किसी मुफ़लिस की क़बा हो जैसे

इंतिज़ार उस का मिरा तार-ए-नफ़स
यक-ब-यक टूट गया हो जैसे

सानेहे करते हैं 'महवर' को तलाश
मरकज़-ए-कर्ब-ओ-बला हो जैसे