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वो नग़्मगी का ज़ाइक़ा उस की सदा में था | शाही शायरी
wo naghmagi ka zaiqa uski sada mein tha

ग़ज़ल

वो नग़्मगी का ज़ाइक़ा उस की सदा में था

सोहन राही

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वो नग़्मगी का ज़ाइक़ा उस की सदा में था
फैला हुआ वो नूर सा सारी फ़ज़ा में था

चुप चाप बे-ज़बाँ कोई मेरी अना में था
वर्ना कहाँ ये हौसला मेरी बिना में था

वो मेरे साँस की धनक में झूलता था कौन
किस का था रंग-रूप जो हुस्न-ए-ख़ला में था

जो छू रहा था मेरे बदन ही को बार बार
तेरे ख़ुलूस का कोई झोंका हवा में था

जाँ से गुज़र के भी कभी शायद न ये खुले
जादू ये किस निगाह का मेरी निगह में था

कल रात बह रहा था जो बारिश के नाम से
मेरा ही एक अश्क-ए-तर सारी घटा में था