वो मिज़ा मारती कटारी है
चशम-ए-बद्दूर ज़ख़्म कारी है
आँखें चमका गया वो बर्क़-आसा
दिल मिरा वक़्फ़-ए-बे-क़रारी है
क़ैस बाद-ए-सबा है बू लैला
शाख़-ए-गुल नाफ़े की सवारी है
ज़ुल्फ़ तक गो न पहुँचा शाना-वार
हाथ को पर उमीद-वारी है
दिल पे चढ़ती नहीं कोई तदबीर
मेरी तक़दीर वो उतारी है
दोस्तों से है उन की अय्यारी
और आ'दा से दोस्त-दारी है
दम समझता है ऐ 'वक़ार' वो शोख़
मेरी दो दिन से दम-शुमारी है

ग़ज़ल
वो मिज़ा मारती कटारी है
किशन कुमार वक़ार