वो मिरी दुनिया का मालिक था मगर मेरा न था
मैं ने इस अंदाज़ पर पहले कभी सोचा न था
एक मुद्दत तक रहा ख़ुश-फ़हमियों में मुब्तला
आईने के रू-ब-रू जब तक मिरा चेहरा न था
तोहमतों को एक ऐसे अजनबी की थी तलाश
जो कभी घर से निकल कर राह में ठहरा न था
हो चुकी थी शोहरतें रुस्वाइयों से हम-कनार
भूल जाता मैं जिसे वो सानेहा ऐसा न था
मेरी नज़रों में है ख़ाका वो भी हुस्न-ए-दोस्त का
जिस को लोगों ने अभी तक ज़ेहन में सोचा न था
मैं उठूँ तो रंग लाएँ तज़्किरों के सिलसिले
लोग इतना तो कहें कि आदमी अच्छा न था
लोग इस अंदाज़ में देते हैं दुनिया की मिसाल
मैं तो जैसे तजरबों के दौर से गुज़रा न था
इक नया एहसास देते हैं वो अहल-ए-संग को
आबरू के साथ रहना शहर में अच्छा न था
क्या असर-अंदाज़ होता उस पे अफ़्साना 'नज़र'
लफ़्ज़ भी माँगे हुए मफ़्हूम भी अपना न था
ग़ज़ल
वो मिरी दुनिया का मालिक था मगर मेरा न था
जमील नज़र