EN اردو
वो मिरी दुनिया का मालिक था मगर मेरा न था | शाही शायरी
wo meri duniya ka malik tha magar mera na tha

ग़ज़ल

वो मिरी दुनिया का मालिक था मगर मेरा न था

जमील नज़र

;

वो मिरी दुनिया का मालिक था मगर मेरा न था
मैं ने इस अंदाज़ पर पहले कभी सोचा न था

एक मुद्दत तक रहा ख़ुश-फ़हमियों में मुब्तला
आईने के रू-ब-रू जब तक मिरा चेहरा न था

तोहमतों को एक ऐसे अजनबी की थी तलाश
जो कभी घर से निकल कर राह में ठहरा न था

हो चुकी थी शोहरतें रुस्वाइयों से हम-कनार
भूल जाता मैं जिसे वो सानेहा ऐसा न था

मेरी नज़रों में है ख़ाका वो भी हुस्न-ए-दोस्त का
जिस को लोगों ने अभी तक ज़ेहन में सोचा न था

मैं उठूँ तो रंग लाएँ तज़्किरों के सिलसिले
लोग इतना तो कहें कि आदमी अच्छा न था

लोग इस अंदाज़ में देते हैं दुनिया की मिसाल
मैं तो जैसे तजरबों के दौर से गुज़रा न था

इक नया एहसास देते हैं वो अहल-ए-संग को
आबरू के साथ रहना शहर में अच्छा न था

क्या असर-अंदाज़ होता उस पे अफ़्साना 'नज़र'
लफ़्ज़ भी माँगे हुए मफ़्हूम भी अपना न था