वो मिरे दिल में यूँ समा के गई
लाख चाहा मगर न जा के गई
एक अर्सा हुआ कभी न खुली
दिल पे जो गिरह वो लगा के गई
रात ग़म की कटे नहीं कटती
सुब्ह इक पल में मुस्कुरा के गई
मान टूटे तो फिर नहीं जुड़ता
बद-गुमानी कभी न आ के गई
ऐ 'नईम' अब न वापसी होगी
बारहा ज़िंदगी बता के गई
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ग़ज़ल
वो मिरे दिल में यूँ समा के गई
नईम जर्रार अहमद