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वो मिले हैं मगर मलूल हैं हम | शाही शायरी
wo mile hain magar malul hain hum

ग़ज़ल

वो मिले हैं मगर मलूल हैं हम

मसूद मैकश मुरादाबादी

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वो मिले हैं मगर मलूल हैं हम
जो ख़िज़ाँ में खिले वो फूल हैं हम

हम को ज़ुल्मत-पनाह मत जानो
इक नई सुब्ह के रसूल हैं हम

इस तवज्जोह का क्या ठिकाना है
तेरी पहली नज़र की भूल हैं हम

तिश्नगी तो हमें क़ुबूल न थी
तिश्नगी को मगर क़ुबूल हैं हम

उस बदलती निगाह से पूछो
इश्क़ का मो'तबर उसूल हैं हम

कितने बे-कैफ़ किस क़दर बे-रंग
किस की तख़्लीक़ का हुसूल हैं हम

प्यार की चाँदनी में खिलते हैं
दश्त-ए-इंसानियत के फूल हैं हम

ज़िंदगी ने कहा उजाला हैं
मौत ने जब कहा फ़ुज़ूल हैं हम

आज भी मीर-ए-कारवाँ तुम हो
आज भी रहगुज़र की धूल हैं हम