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वो मेहरबाँ हो तो सहरा भी गुलिस्ताँ हो जाएँ | शाही शायरी
wo mehrban ho to sahra bhi gulistan ho jaen

ग़ज़ल

वो मेहरबाँ हो तो सहरा भी गुलिस्ताँ हो जाएँ

इरफ़ान वहीद

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वो मेहरबाँ हो तो सहरा भी गुलिस्ताँ हो जाएँ
अगर ख़फ़ा हो तो बरहम सितार-गाँ हो जाएँ

हवाएँ शौक़ समुंदर की मेहरबाँ हो जाएँ
तलब सफ़ीना हो अरमान बादबाँ हो जाएँ

ब-यास-ए-दोस्ती इतने भी अब न दो इल्ज़ाम
कि हम ख़ुद अपनी तरफ़ से भी बद-गुमाँ हो जाएँ

क़लंदरों के लिए शहर क्या है सहरा क्या
ग़रज़ तो ठोर ठिकानों से है जहाँ हो जाएँ

तुम्हारी याद करे ऐसे दिल में घर अपना
हम अपने घर में ब-तदरीज मेहमाँ हो जाएँ

तिरी रज़ा रही शामिल तो इस मसाफ़त में
सुलगते दश्त की धूपें भी साएबाँ हो जाएँ

जो हो यक़ीन तो बस इक चराग़ काफ़ी है
न हो तो लाख मह-ओ-मेहर राएगाँ हो जाएँ

चलो शिगाफ़ बनाएँ फ़सील-ए-वक़्त में हम
अजब नहीं कि बहम सारे रफ़्तगाँ हो जाएँ

जो सैद-ए-दाम-ए-जुनूँ थे वो पा गए मंज़िल
असीर-ए-दानिश-ओ-बीनिश न बे-निशाँ हो जाएँ

फ़ुज़ूल ठहरे तग-ओ-ताज़-ए-उम्र भी सारी
हथेलियों की लकीरें भी राएगाँ हो जाएँ

वफ़ा की जिंस हैं 'इरफ़ान' हम भी अर्ज़ां हैं
ख़रीद लो कहीं ऐसा न हो गराँ हो जाएँ