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वो मक़्तल में अगर खींचे हुए तलवार बैठे हैं | शाही शायरी
wo maqtal mein agar khinche hue talwar baiThe hain

ग़ज़ल

वो मक़्तल में अगर खींचे हुए तलवार बैठे हैं

अनवरी जहाँ बेगम हिजाब

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वो मक़्तल में अगर खींचे हुए तलवार बैठे हैं
तो हम भी जान देने के लिए तय्यार बैठे हैं

दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ पर इस तरह मय-ख़्वार बैठे हैं
कि कुछ मख़मूर बैठे हैं तो कुछ सरशार बैठे हैं

अगर वो गालियाँ देने पर आमादा हैं ख़ल्वत में
तो हम भी अर्ज़-ए-मतलब के लिए तय्यार बैठे हैं

गला मैं काट लूँ ख़ुद इक इशारा हो जो अबरू का
वो क्यूँ मेरे लिए खींचे हुए तलवार बैठे हैं

सहारा जब दिया है कुछ उम्मीद-ए-वस्ल ने आ कर
तो उठ कर बिस्तर-ए-ग़म से तिरे बीमार बैठे हैं

हिजाब उन से वो मेरा पूछना सर रख के क़दमों पर
सबब क्या है जो यूँ मुझ से ख़फ़ा सरकार बैठे हैं