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वो माह-वश है ज़मीं पर नज़र झुकाए हुए | शाही शायरी
wo mah-wash hai zamin par nazar jhukae hue

ग़ज़ल

वो माह-वश है ज़मीं पर नज़र झुकाए हुए

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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वो माह-वश है ज़मीं पर नज़र झुकाए हुए
सितारे बैठे रहें महफ़िलें सजाए हुए

गए थे कितनी उमंगों को ले के सीने में
जो तेरी बज़्म से उट्ठे तो सर झुकाए हुए

हमें भी प्यार से देखो कि हम हैं ख़स्ता-जिगर
ग़म-ए-ज़माना के मारे हुए सताए हुए

हमें तो एक नहीं कुश्ता-ए-मआल-ए-करम
कुछ और भी हैं फ़रेब-ए-निगाह खाए हुए

ख़याल-ए-दूरी-ए-मंज़िल थका भी देता है
चले चलो अभी आगे क़दम बढ़ाए हुए

कभी जो रहते थे सर-मस्त-ए-नश्तर-ए-ग़म-ए-दोस्त
वो जा रहे ग़म-ए-जाँ से मुँह की खाए हुए