वो लम्हे भूले नहीं रस्म-ओ-राह के अब तक
तसव्वुरात हैं दिल में गुनाह के अब तक
बहा के ले गया सैलाब गाँव के मंज़र
घरौंदे मिट नहीं पाए हैं चाह के अब तक
तिरी ज़बाँ से जो निकले थे बद-दुआ बिन कर
मुझे जलाते हैं शोले वो आह के अब तक
किसी ज़माने में शायद यहाँ पे मक़्तल था
निशाँ बताते हैं ये क़स्र शाह के अब तक
वो ख़्वाब देखे ज़माना गुज़र गया लेकिन
सुलग रहे हैं दरीचे निगाह के अब तक
जहाँ पे साए लरज़ते हैं तेरी यादों के
बुला रहे हैं वही मोड़ राह के अब तक
कही थी दार पे कल हक़ की बात 'अहसन' ने
सलीब हाथ में है सरबराह के अब तक
ग़ज़ल
वो लम्हे भूले नहीं रस्म-ओ-राह के अब तक
नवाब अहसन