EN اردو
वो खुल कर मुझ से मिलता भी नहीं है | शाही शायरी
wo khul kar mujhse milta bhi nahin hai

ग़ज़ल

वो खुल कर मुझ से मिलता भी नहीं है

फ़रहत क़ादरी

;

वो खुल कर मुझ से मिलता भी नहीं है
मगर नफ़रत का जज़्बा भी नहीं है

यहाँ क्यूँ बिजलियाँ मंडला रही हैं
यहाँ तो एक तिनका भी नहीं है

बरहना सर मैं सहरा में खड़ा हूँ
कोई बादल का टुकड़ा भी नहीं है

चले आओ मिरे वीरान दिल तक
अभी इतना अंधेरा भी नहीं है

समुंदर पर है क्यूँ हैबत सी तारी
मुसाफ़िर इतना प्यासा भी नहीं है

मसाइल के घने जंगल से यारो
निकल जाने का रस्ता भी नहीं है

अजब माहौल है गुलशन का 'फ़रहत'
हवा का ताज़ा झोंका भी नहीं है