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वो ख़ौफ़-ए-जाँ था कि लब खोलना गवारा न था | शाही शायरी
wo KHauf-e-jaan tha ki lab kholna gawara na tha

ग़ज़ल

वो ख़ौफ़-ए-जाँ था कि लब खोलना गवारा न था

नस्र ग़ज़ाली

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वो ख़ौफ़-ए-जाँ था कि लब खोलना गवारा न था
सदाएँ सहमी कुछ ऐसी सुख़न का यारा न था

तमाम अपने पराए कटे कटे से रहे
छुरी जो चमकी तो उस ने किसे पुकारा न था

रुख़-ए-कमाँ था उधर तीर का निशाना इधर
हमारा दोस्त तो था और मगर हमारा न था

रफ़ू-तलब नज़र आता है देखिए जिस को
लिबास-ए-जाँ तो कभी इतना पारा पारा न था

ख़ुदा करे कि रहे मेहरबाँ सदा तुम पर
अज़ीज़ो वक़्त कि इक लम्हा भी हमारा न था

उड़ानें भरते परिंदों के पर कतर डालें
नज़र के सामने ऐसा कभी नज़ारा न था

है दूर हद्द-ए-नज़र से तो क्या क़यामत है
हमारे पास था जब तक वो इतना प्यारा न था