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वो कौन दैर-नशीं था हरम के गोशे में | शाही शायरी
wo kaun dair-nashin tha haram ke goshe mein

ग़ज़ल

वो कौन दैर-नशीं था हरम के गोशे में

शाज़ तमकनत

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वो कौन दैर-नशीं था हरम के गोशे में
किस की याद थी याद ख़ुदा के पर्दे में

कहें तो किस से कहें चुप सी लग गई है हमें
बड़ा सुकूँ है तिरी बे-रुख़ी के सदक़े में

दिखा दिखा के झलक कोई छुपता जाता था
कहाँ कहाँ न सदा दी किसी के धोके में

ख़बर नहीं कि तिरी याद क्या तिरा ग़म क्या
मगर वो दर्द जो होता है साँस लेने में

तिरे फ़िराक़ की ये दीन भी क़यामत है
कहाँ की आग समो दी है मेरे नग़्मे में

चली थी कश्ती-ए-दिल बादबान-ए-याद के साथ
कहाँ उतार गई अजनबी जज़ीरे में

वो आधी रात वो सुनसान रास्ता वो मकाँ
वो इक शम्अ' सी जलती हुई दरीचे में

नशेब-ए-वादी-ए-ग़म में उतर गया है कोई
खड़ा हुआ है कोई आज तक झरोके में

हयात क्या है अजल को भी हार बैठे 'शाज़'
कहीं के भी न रहे नक़्द-ए-दिल के सौदे में