वो कह तो गए हैं कि हम आवेंगे सहर तक
उम्मीद है जीने की किसे चार-पहर तक
ज़ुलमात-ओ-अदम में न रहा फ़र्क़ सर-ए-मू
वो ज़ुल्फ़-ए-दोता छुटते ही पहोंचे है कमर तक
है रौज़न-ए-दर-दीदा-ए-ख़ुर्शीद-ए-क़यामत
वो झाँकने आए थे कुहन रौज़न-ए-दर तक
कुछ कह दें इशारों ही से वो मुँह से न बोलें
वो माँगें तो हम जान तलक दें उन्हें सर तक
'तनवीर' सुख़न-फ़हम समझते हैं सुख़न को
कुछ क़द्र हुनर की है तो है अहल-ए-हुनर तक

ग़ज़ल
वो कह तो गए हैं कि हम आवेंगे सहर तक
तनवीर देहलवी