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वो काश वक़्त के पहरे को तोड़ कर आते | शाही शायरी
wo kash waqt ke pahre ko toD kar aate

ग़ज़ल

वो काश वक़्त के पहरे को तोड़ कर आते

मर्ग़ूब असर फ़ातमी

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वो काश वक़्त के पहरे को तोड़ कर आते
जो महव-ए-ख़्वाब हैं उन को झिंझोड़ कर आते

न उठती कोई निगाह-ए-ग़लत सर-ए-महफ़िल
वो अपने जल्वे को घर अपने छोड़ कर आते

उदास आँखों को देखा तो ये ख़याल आया
चमन के फूलों से शबनम निचोड़ कर आते

असा-ए-मूसा कभी हाथ लग गया होता
फ़िरऔन-ए-वक़्त का सर हम भी फोड़ कर आते

अगर थी चेहरे पे रौनक़ की आरज़ू उन को
मुसीबतों की कलाई मरोड़ कर आते

उधर न निकलेंगे वो नज़र-ए-बद का ख़दशा है
ख़बर ये होती तो हम आँखें फोड़ कर आते

सुना कि आज भी दानिशवरों में ख़ूब मची
'असर' भी आते तो हिम्मत बटोर कर आते